Tuesday, June 20, 2017

डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड या फिक्स्ड डिपाजिट... किसमे कितना है दम


एक आम निवेशक को म्यूच्यूअल फण्ड में रिस्क और रिटर्न समझाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती होती है. एक निवेशक का निवेश करने से पहले आम तौर पर यही प्रश्न होता है इसमें कितना रिटर्न मिलेगा और बैंक डिपाजिट से या फिक्स्ड डिपाजिट से कितना ज्यादा देगा, साथ में ही इस रिटर्न की क्या गारंटी है ? कहाँ लिखा है ? और यहीं पर फिक्स्ड इनकम म्यूच्यूअल फण्ड ट्रेडिसनल फिक्स्ड डिपाजिट से अलग हो जाता है क्यूंकि इनमे में भविष्य में मिलने वाला रिटर्न कहीं  लिखा नहीं होता, यहां सिर्फ पिछले सालों में मिले रिटर्न का विवरण होता है. आगे क्या मिलेगा इसका आंकलन फण्ड को होनी वाली इंटरेस्ट इनकम और भविष्य में इंटरेस्ट रेट में होने वाले परिवर्तन से किया जा सकता है. जबकि बैंक डिपाजिट या फिक्स्ड डिपाजिट में इंटरेस्ट या मेच्योरिटी वैल्यू पहले से ही लिखा होता है.

म्यूच्यूअल फण्ड को अपने  रिटर्न किसी बेंचमार्क से तुलना करके बताने होते हैं तो डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड में भी कई सारे बेंचमार्क हैं, जैसे क्रिसिल लिक्विड फण्ड इंडेक्स, क्रिसिल सॉर्ट टर्म बांड फण्ड इंडेक्स या क्रिसिल लॉन्ग टर्म बांड फण्ड इंडेक्स. अब डेब्ट फण्ड और इंडेक्स की परफॉरमेंस का तुलनात्मक अध्ययन करना और एक आम निवेशक को यह समझाना की डेब्ट फण्ड भी आपको बैंक डिपाजिट से बेहतर और स्टेबल रिटर्न दे सकते हैं यह समझा पाना थोडा पेंचीदा हो जाता है. 

इसीलिए एक आम निवेशक ऐसे प्रोडक्ट में निवेश करना ज्यादा पसंद करता है जिसमे उसे पहले से ही पता हो की कब और कितना रिटर्न मिलेगा, जैसा की बैंक डिपाजिट या फिक्स्ड डिपाजिट में होता है. 

पहले यह समझते हैं कि बैंक डिपाजिट कैसे काम करते हैं . बैंक अपने अकाउंट होल्डर से डिपाजिट लेता है और उसी पैसे को दूसरों को अधिक ब्याज पर लोन देता है. उदाहरण के लिए जब बैंक अपने डिपाजिटर से 6% पर डिपाजिट लेता है और उसी पैसे को दुसरे आदमी को 9.5% ब्याज पर लोन दे देता है तो बैंक की समय पर ब्याज और मूल धन चुकाने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि लोन लेना वाला आदमी उसे कितने समय से पैसे ब्याज के साथ लौटा रहा है. और यह तो सभी को पता है ऐसा कोई बैंक नहीं है जिसके पास आज के समय अच्छा खासा नॉन परफोर्मिंग एसेट ना हो, हर एक बैंक के लोन बुक में समस्या है. इसलिए यह समझना बहुत जरुरी है की बैंक यह कैसे आश्वस्त करता है कि इन  नॉन परफोर्मिंग एसेट या बैड लोन का रिस्क  डिपाजिटर पर ना पड़े.

एक बैंक अपने लोन की फंडिंग पूरी तरह से डिपाजिट से नहीं कर सकता उसे इक्विटी कैपिटल भी रखना पड़ता है जिससे वो इन नुकसानों का सामना कर सके और उसका प्रभाव एक आम डिपाजिटर पर ना पड़ने दे. लेकिन क्या यह सिस्टम पूरी तरह से सुरक्षित है क्या एक आम डिपाजिटर का पैसा वाकई में ऐसे बैंक में सुरक्षित है जहाँ लोन डिफ़ॉल्ट ज्यादा हों या नॉन परफोर्मिंग एसेट नियंत्रण से बाहर होने वाले हों और जिनके पास पर्याप्त कैपिटल ना हो.

ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के अलावा पिछले 20-25 सालों में किसी बैंक का उदाहरण हमें नहीं मिलता जिसमे डिफ़ॉल्ट होने की नौबत आई और फिर सरकार और RBI को हस्तक्षेप कर के बैंक को फाइनेंसियल प्रॉब्लम से उबारने के लिए किसी दूसरे बैंक को अधिग्रहण करवाना पड़ा. वैसे ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के डिपाजिटर के लिए यह समय बहुत आराम दायक नहीं था, उस समय उनको अपने डिपाजिट के वापस मिलने का भरोसा थोडा डगमगा गया था. इस तरह की समस्या केवल एक  बैंक में होती है तब तो सरकार संभाल सकती है लेकिन अगर ऐसी समस्या एक से ज्यादा बैंको में हो जाय तो सरकार के लिए भी इसे संभाल पाना भी मुश्किल हो सकता है.  

कोऑपरेटिव बैंको के उदाहरण कई सारे मिल जायेंगे जहाँ पर डिपाजिट होल्डर के सेविंग अकाउंट के पैसे भी वापस नहीं मिल पाए. लेकिन प्राइवेट & सरकारी बैंकों का को-ऑपरेटिव बैंको से तुलना करना सही नहीं होगा.

सरकारी बैंक में आज के समय बैड एसेट या NPA की जो समस्या है वो एक डरावनी तस्वीर पेश करती है. अगर बैंक इनको संभाल ना सकी तो भविष्य में परेशानियाँ किसी नए रूप में आम डिपाजिटर के सामने आ सकती हैं.


आम तौर पर निवेशक फिक्स्ड डिपाजिट के पीछे के रिस्क को समझ नहीं पाता. कोई भी संस्था पेपर पर प्रिंट करके मेच्योरिटी या इंटरेस्ट बता दे तो उसे सुरक्षित और गारंटी समझ लेते हैं. इसीलिए थोडा ज्यादा कमाने की लालच में पोंज़ी स्कीम में निवेश बहुत सारे लोग निवेश करते हैं, जहाँ पर भी पेपर में छाप कर ज्यादा रिटर्न, ज्यादा मेच्योरिटी वैल्यू देने की बात को गारंटी दी जाती है. और इस तरह से लोगों के हजारों करोड़ रूपये शारदा ग्रुप, रोज वैली या PACL जैसी संस्थाओं के हाथ में चले जाते हैं.

दूसरा तरीका होता है कॉर्पोरेट फिक्स्ड डिपाजिट में निवेश करने का जहाँ पर फिर ज्याद इंटरेस्ट देने का ऑफर आम निवेशक के सामने होता है . यहाँ पर जो संस्थाएं ज्यादा इंटरेस्ट ऑफर करते हैं उनके पीछे के कारण या तो उस कॉर्पोरेट के आर्थिक हालात अच्छे ना होना होता है या उनके मैनेजमेंट की और समस्याएं हो सकती हैं. लेकिन जब एक आम निवेशक फिक्स्ड डिपाजिट के रिस्क को नहीं समझता तब हमारे सामने जे पी, यूनीटेक और यश बिरला ग्रुप की कंपनी के फिक्स्ड डिपाजिट में निवेश करने और पूंजी फ़साने वाले ऐसे लाखों लोग सामने आते हैं.   

अब हम बात करते हैं फिक्स्ड इनकम या डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड में रिस्क और रिटर्न की.

एक डेब्ट या फिक्स्ड इनकम म्यूच्यूअल फण्ड में जो निवेशक होता है वो इक्विटी होल्डर (Owner) होता है उसे उस स्कीम का यूनिट होल्डर कहते हैं यहाँ बैंक की तरह निवेशक एक डिपाजिटर ही नहीं रह जाता बल्कि वह उस स्कीम का एक हिस्सेदार बन जाता है इसलिए उसे यहाँ पर होने वाला लाभ या रिटर्न इस बात पर निर्भर करता है कि उस स्कीम की एसेट में कितनी वृद्धि हुई या उसके पोर्टफोलियो की वैल्यू कितनी बढ़ी.

जहाँ बैंक के डिपाजिटर को यह पता नहीं होता की उससे पैसा लेकर वह किसी माल्या को दिया गया है या किसी अच्छे ऋणग्राहक को दिया गया है, बैंक का लोन पोर्टफोलियो कैसा है. वहीँ म्यूच्यूअल फण्ड के निवेशक को उसके पाई-पाई का हिसाब पता होता है कि जिस स्कीम में उसका निवेश है उसने किन बैंको के या किस कंपनी के बांड में पैसे लगाये हैं . एक म्यूच्यूअल फण्ड निवेशक अपने यूनिट के वैल्यू (NAV) रोजाना देख सकता है, हर महीने पोर्टफोलियो की समीक्षा कर सकता है और अगर वह किन्ही कारणों से चाहें वो पोर्टफोलियो की क्वालिटी या परफॉरमेंस से या किसी और चीज से संतुष्ट ना हो तो किसी भी समय वर्तमान मूल्य पर अपने पैसे निकाल भी सकता है. ना तो यहाँ पर पूरा पैसा डूबने का रिस्क है ना एक आम निवेशक को बंध के रहने की मजबूरी है. जब भी जितनी जरुरत है पैसे निकाल ले और जब भी चाहे निवेश बढ़ा ले.

एक प्रोफेशनल मैनेजमेंट आप के पैसों को  किसी एक बैंक, एक कॉर्पोरेट, एक पब्लिक सेक्टर की कंपनी, भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के एक बांड में या एक समयावधी के बांड या डिबेंचर में निवेश नहीं करता बल्कि इन सबको मिला कर एक पोर्टफोलियो बनाता जिस से एक आम निवेशक को कम रिस्क और स्टेबिलिटी के साथ बेहतर रिटर्न बना कर दे सके.

डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड में रिस्क उसके पोर्टफोलियो की क्रेडिट क्वालिटी और उसके मोड ड्यूरेशन पर निर्भर करता है.  और यही काम होता है फण्ड मैनेजर का की वह स्कीम के ऑब्जेक्टिव के अनुसार कम से कम रिस्क उठा के स्टेबल और टैक्स एफीसियेंट रिटर्न बना सके.

डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड में फिक्स्ड डिपाजिट की तरह ही रिटर्न का श्रोत सिर्फ इन्ट्रेस्ट ही नहीं होता, इन्ट्रेस्ट के साथ-साथ पोर्टफोलियो में रखे हुए फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट्स के रेट भी घटते बढ़ते हैं और यह दूसरा श्रोत डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड के रिटर्न को थोडा  प्रभावित करता है.

फिक्स्ड डिपाजिट के मुकाबले फिक्स्ड इनकम म्यूच्यूअल फण्ड ज्यादा टैक्स एफीसियेंट होते हैं  क्यूंकि इन्हें इनकम टैक्स एक्ट ने लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन पर इंडेक्सेशन का फायदा दिया है जिसके कारण 3 साल के बाद इनसे होने वाले गेन पर टैक्स फिक्स्ड डिपाजिट के मुकाबले कहीं कम लगता है.

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जैसे फिक्स्ड डिपाजिट अलग-अलग समयवधि के लिए अलग होते हैं वैसे ही डेब्ट म्यूच्यूअल फण्ड भी कई प्रकार के हैं यहाँ पर एक दिन या एक हफ्ते के लिए अलग स्कीम है, 3 महीने या 6 महीने के लिए अलग हैं और साल दो साल या इस से ज्यादा समय के लिए अलग म्यूच्यूअल फण्ड स्कीम हैं. इसलिए इनमे निवेश करने से पहले आप या तो पूरी जानकारी हासिल कर लें या अच्छे म्यूच्यूअल फण्ड एडवाइजर की सलाह लें. अगर आप यह नहीं कर सकते तो फिक्स्ड डिपाजिट ही आप के लिए बेहतर है.

याद रखें फिक्स्ड इनकम म्यूच्यूअल फण्ड में निवेश कर के आप बेहतर, स्टेबल और टैक्स एफीसियेंट रिटर्न बना सकते हैं. आप डेब्ट फण्ड को सही से समझ जायें तो आपके निवेश का पलड़ा हमेशा एक ट्रेडीसनल फिक्स्ड डिपाजिट के निवेशक से भारी ही रहेगा.

अगले ब्लॉग में पढ़े...कौन सा डेब्ट फण्ड सही है आपके लिए..

Image Source: http://www.freedigitalphotos.net



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